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पतझड़ – प्रोमिला देवी सुदर्शन हुईद्रोम

जीवन ये बर्फ़ सी ठहरी जो,
मौसम का उन्माद है कहीं –
पता क्या के,
सावन की प्रतीक्षा भी कर –
फिर बाहर जो आती है,

पत्ते जो हरे हो,
पतझड़ से परे हो,
समंदर भी जब बर्फ़ बन अब-
नीर ये बहती है प्रतिपल,

ज्ञान है –
ऋतुचक्र भी,
के ये क्रममात्र है –
स्थिर नहीं,
फिर क्यों मैं स्थिर बर्फ़ जो
पतझड़ को अपना चली
क्या ये समझे,
के पतझड़ जीवित भी हैं
समय पर ठहरा हुआ,
न स्थिर –
अब के बदले ये ऋतु
न बदलें कभी।

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